मोहन सूर्यवंशी
पता चला कि योग गुरु बाबा रामदेव और आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर ने पद्म सम्मान लेने से इनकार कर दिया। बाद में यह खबर भी आधी गलत साबित हुई। सरकार की तरफ से आई खबरों से पता चला कि बाबा रामदेव के नाम पर सम्मान के लिए तो विचार भी नहीं किया गया था। बाबा ने टीवी खबरों को ही सही समझकर खुद ही मियां मिट्ठू बन बैठे। लेकिन यहां पर यह सवाल उठता है कि क्या इन दोनों सन्यासियों ने ऐसा करके अपनी उदारता दिखाई या इन सम्मानों और जनता द्वारा चुनी हुई सरकार का अपमान किया। सम्मान मिलना खबर है तो सम्मान ठुकराना उससे बड़ी खबर है।
इसी तरह सलीम खान की खबर पढ़ी। जिसमें उन्होंने भी पद्मश्री सम्मान मिलने पर नाखुशी जाहिर करते हुए कहा कि वह तो इस सम्मान से भी बड़े है। उन्हें इससे भी बड़ा सम्मान मिलना चाहिए। इसके पहले साइना नेहवाल जैसे खिलाड़ी इस बात पर सिर फुटव्वल कर रहे थे कि उनका नाम सम्मान के लिए क्यों नहीं भेजा जा रहा।
इसी तरह सलीम खान की खबर पढ़ी। जिसमें उन्होंने भी पद्मश्री सम्मान मिलने पर नाखुशी जाहिर करते हुए कहा कि वह तो इस सम्मान से भी बड़े है। उन्हें इससे भी बड़ा सम्मान मिलना चाहिए। इसके पहले साइना नेहवाल जैसे खिलाड़ी इस बात पर सिर फुटव्वल कर रहे थे कि उनका नाम सम्मान के लिए क्यों नहीं भेजा जा रहा।
खैर इस धींगा—मुश्ती से एक आम आदमी होने के नाते मुझे यही समझ में आता है कि अब हमारे देश में ऐसे लोगों की बहुत बड़ी फौज खड़ी हो गई है जो कि अपने आपको इस देश, सरकार और जनता से ऊपर समझने लगे हैं। शुक्र है कि अभी हालात पाकिस्तान जैसे नहीं है। जहां पर कि चार—पांच स्ंस्थाए मिलकर अपने—अपने हिसाब से सरकारें चलाती है। हाफिज सईद खुद अपनी विदेश नीति और दूसरे देशों के साथ मामले हल करता है तो सेना की अपनी अलग नीति है। और जो जनता ने सरकार चुनी है वह तो बेचारी कोई काम की ही नहीं।
हालांकि हमारे देश में सम्मानों की यह दुर्दशा क्यों हुई। इसकी वजह पुरानी सरकारें है। उन्होंने सम्मान लेने और देने की ऐसी प्रथा चलाई कि लोगों का सम्मान में विश्वास ही नहीं रह गया। अब अगर किसी को सम्मान मिलता है तो उसका अधिकतर आम जनता में दो ही अर्थ समझे जाते हैं एक तो उसने जोड़ तोड़ और सिफारिश के चलते यह सम्मान प्राप्त किया या वह राजनीतिक रुप से सरकार की मदद करता है और उसका वोट बैंक बढ़ा सकता है। शायद यही वजह है कि बाबा रामदेव ने सम्मान मिलने के पहले ही लेने से मना कर दिया क्योंकि इसका साफ संदेश जाता कि कांग्रेस का बेड़ा गर्क करने का ईनाम उन्हें मिला है।
मेरे सुझाव है कि सरकार इन अतिविशिष्ट सम्मानों को देना ही बंद कर दें। इन सबके स्थान पर एक 'एक आम आदमी' सम्मान शुरु किया जाए। यह सम्मान उन्हीं लोगों को दिया जाए जो कि आम आदमी की मदद करें उनके भले के लिए काम करें। अब वह जमाना नहीं रहा लोग बिना किसी स्वार्थ के देश के लिए काम करते थे। अब तो खिलाड़ियों से लेकर समाजसेवियों तक को उनका मेहताना उसी समय मिल जाता है। जो कि दांए—बाएं से आखिरकार जनता की जेब से ही निकाला जाता है।
अब तो बाबा लोग भी प्रवचन के साथ च्वनप्रास से लेकर टूथपेस्ट तक बेचकर लाभ कमा लेते हैं। खिलाड़ी, करोड़ों के मेहतना से लेकर विज्ञापन के रुप में शराब की बिक्री तक कर डालते है। उद्योगपति तो हर कदम पर जनता की जेब पर डाका डालता है। कलाकारों को अब फ्री में कहीं भी नहीं देखा जा सकता। आम आदमी की महीने की सैलरी के बराबर उनके कंसर्ट की टिकट होती है। समाजसेवी, जन आंदोलन वाले बाया डाटा मजबूत करके राजनीति में आकर मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री तक बन जाते हैं।
अब तो सिर्फ विदेशी सम्मानों का ही जलवा बचा है। नोबेल, बुकर, आस्कर जैसे पुरस्कार ही हमारे देश में अब आदमी की हैसियत तय करते हैं। ऐसे में अब इस देश में सम्मान का कोई महत्व नहीं रह गया है। वैसे भी इस देश के बड़े लोग, देशी सम्मान पाकर अपने आपको छोटा समझने लगे हैं और छोटे लोग — दाल, चावल, आटे का इंतजाम करने में इतने व्यस्थ है कि वह सम्मान लेने लायक कोई काम करते ही नहीं।
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