मोहन सूर्यवंशी
अन्ना हजारे एक बार फिर से आंदोलन कर रहे हैं। हमारे देश का
न्यूज हंगरी मीडिया उन्हें हाथों हाथ ले रहा है। क्योंकि आजकल मीडिया एक ही नीति
पर काम कर रहा है 'फूट डालो और शासन
करो'। अन्ना ने जब भ्रष्टाचार
के खिलाफ आंदोलन किया था तो जनता उनके साथ सीधे जुड़ गई थी। लेकिन उसके बाद इस
आंदोलन का जो हश्र हुआ वह सबके सामने है। इस आंदोलन को चलाने वाले लोगों ने अपने
बायोडाटा मजबूत किए और सारे के सारे अब राजनीति में सेट हो गए हैं। कोई
मुख्यमंत्री बन गया है तो कोई मंत्री। किसी की कविता—पाठ की दुकान ज्यादा चलने लगी है तो कोई
कमिश्नर नहीं बन पाया इसलिए मुख्यमंत्री तक का चुनाव लड़ लिया। इस तरह अन्ना के
सभी बच्चे सेट हो गए हैं। अब बेचारे बचे अन्ना तो उन्हें इस बात का बहुत दुख है कि
वह तो गुड़ रह गए और चेले शक्कर हो गए। इसलिए अब वह फिर से आंदोलन की राह पकड़ रहे
हैं। उनका साथ देनेवालों की भी कमी नहीं है। आखिर
कमी हो भी क्यों अन्ना के साथ आंदोलन करना मतलब राजनीति में अपनी सीधी
एंट्री करवाना। एक ही झटके में मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री तक बन जाना।
लेकिन मुझे लगता है कि इस तरह के आंदोलन हर बार सफल नहीं
होते। जिस समय अन्ना और उनकी टीम ने आंदोलन किया था, जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त थी। वह किसी तरह
इससे छुटकारा पाना चाहती थी। उसका गुस्सा इतना ज्यादा बढ़ गया था कि वह कहीं भी
फूटने के लिए तैयार बैठा हुआ था। जिसका फायदा अन्ना और उनकी टीम ने उठाया। मोदी
सरकार के प्रचंड बहुमत से विजय होने में भी इसका बहुत योगदान रहा है। इस बहती गंगा
में तो केजरीवाल ने हाथ ही नहीं धोया बल्कि डुबकी भी लग ली, जिससे कि वह एक ही झटके में सीधे मुख्यमंत्री
बन बैठे। लेकिन अब ऐसा बार—बार नहीं होने वाला है। अभी जनता ने अपने वोट का प्रयोग करके देश में सरकार
बनाई है। यह सरकार उसी की है इसलिए अन्ना का यह कदम जनता को नागवार ही गुजरेगा।
अन्ना की टीम को भी जनता ने दिल्ली में सत्ता की मलाई चखा दी है। वह देखना चाहती
है कि अन्ना और उनकी टीम आंदोलन के समय जो—जो बातें करती थी क्या वह वाकई में हकीकत में बदल सकती है
या नहीं।
लेकिन जैसा अंदेशा था वैसा ही हो रहा है। केजरीवाल की टीम
को जैसे ही सत्ता का सुख मिला उनके हाव भाव बदल गए हैं। जिन पर सवार होकर वह
दिल्ली की सत्ता तक पहुंचे उसी मीडिया की एंट्री उन्होंने सचिवालय में बंद करवा दी
है। पत्रकारों को दलाल तक कहने पर उतार आए हैं। आप के नेता जो कि कहते नहीं थकते
थे कि वह आम आदमी है, उन्हें बंगला,
गाड़ी नहीं चाहिए। अब वह
दिल्ली में सबसे बड़े बंगले देख रहे हैं ताकि वहां बैठकर पुराने नेताओं की तरह
जनता की समस्या हल कर सके। अर्थात अन्ना और उसकी टीम ने जिन मुद्दों को लेकर
आंदोलन किए और जिन मुद्दों के सहारे वह सत्ता तक पहुंचे वह सब वही रह गए। बाबा
रामदेव के आंदोलन का भी यही हाल हुआ। काला धन तो ला नहीं पाएं लेकिन पता चला है कि
उनका व्यापार 2 हजार करोड़ को
पार कर गया है। सरकार सम्मान लिए उनकी हां के इंतजार में खड़ी है। हरियाणा के
ब्रांड एबेसडर से लेकर पता नहीं क्या—क्या बनने वाले है? लेकिन जनता को अभी तक काला—पीला कुछ भी हाथ नहीं लगा है। इसलिए अन्ना का
यह भूमि आंदोलन भी एक दिखावा से ज्यादा कुछ नहीं लगता। वैसे भी जनता ने अपने
नुमाइंदे संसद में भेज दिए हैं, वह ही तय कर कि इस देश में कौनसी नीतियां बनेगी और कौनसे काम होंगे। अगर पक्ष
और विपक्ष इसमें नाकाम होते हैं तो उसका फायदा अन्ना और केजरीवाल जैसे लोग उठा
लेंगे। लेकिन अभी यह वक्त नहीं आया है।